उत्तर प्रदेश के पूर्व कृषि मंत्री गेंदा सिंह की मौत लखनऊ के बलरामपुर हॉस्पिटल में हुई थी। अंतिम संस्कार के लिए जब उनका शव उनके पैतृक गांव देवरिया दुमही लाया गया तो घरवालों के पास उनके कफन तक के पैसे नहीं थे। रिश्तेदारों ने मदद की तो अंतिम संस्कार की रस्म पूरी हुई थी। उस समय की सरकार तक यह बात पहुंची तो 5 हजार रुपए की मदद हुई थी। गेंदा सिंह, पूर्वांचल के आखिरी किसान नेता कहे जाते हैं। किसान आंदोलनों से निकलकर गेंदा सिंह राजनीति में उतरे थे और कांग्रेस सरकार में कृषि मंत्री रहे। किसानों ने उनका उप नाम गन्ना सिंह रख दिया था।
वर्तमान में केंद्र सरकार के तीन नए कृषि कानूनों को लेकर देशभर के किसानों ने दिल्ली को चारों तरफ से घेर रखा है। हालांकि उत्तर प्रदेश में किसान आंदोलन का खास असर नहीं है। इसके पीछे एक वजह यह भी है कि अब कोई भी ऐसा नेता या अगुवा नहीं है जो किसानों को एकजुट कर सके। आज किसान दिवस भी है। ऐसे में गेंदा सिंह जैसे किसान नेताओं की कमी महसूस होने लगती है
गेंदा सिंह के भतीजे पारस सिंह बताते हैं कि हमारा इलाका गन्ना किसानों से भरा हुआ है। यही वजह रही कि बाबू गेंदा सिंह की राजनीति भी किसानों के साथ ही शुरू हुई। 1960-61 की बात है। मुजफ्फरनगर में गन्ना किसानों का बहुत बड़ा जमावड़ा था। उस समय वह (गेंदा सिंह) मंत्री नहीं थे। उस समय वे सरकार से गन्ना किसानों की लड़ाई लड़ रहे थे। जब वहां पहुंचे तो भव्य स्वागत हुआ। उस समय 1 रुपए 7 आने मन गन्ना का रेट था। गेंदा सिंह चाहते थे कि रेट 1 रुपये 10 आना हो जाए। उसी सम्मेलन में किसानों ने गेंदा सिंह का नाम गन्ना सिंह कर दिया था।
गेंदा सिंह के नाती अरविंद बैंक से रिटायर हैं और लखनऊ में परिवार के साथ रहते हैं। उन्होंने बताया कि यह बात 1969-70 के आसपास की है। किसानों के मुद्दे पर गेंदा सिंह की सरकार से ही ठन गई। जिसके बाद उन्होंने मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। हालांकि उस समय मुख्यमंत्री रहे चौधरी चरण सिंह ने उनका इस्तीफा स्वीकार नहीं किया था। लगभग 1 महीने तक उनकी हां-ना का इंतजार किया। उसके बाद एक शादी समारोह में जहां गेंदा सिंह को भी आना था और मुख्यमंत्री को आना था। वह शादी लखनऊ स्थित दारुलशफा में होनी थी। वहीं, दोनों की बात हुई। जब उन्होंने इस्तीफा वापस नहीं लिया तो फिर अगले दिन उनका इस्तीफा मंजूर कर लिया गया। उस समय वह सूचना मंत्री थे। लेकिन किसानों के बकाया और फसल का रेट बढ़ाने जैसे तमाम मुद्दे थे। जिस पर वह सरकार से नाराज थे।
पारस बताते हैं कि बाबू गेंदा सिंह की तीन बेटियां थीं। जबकि उनके भाई बृंदा सिंह के तीन बेटे थे। जिसमें से मेरी नौकरी सिंचाई विभाग में स्टोर कीपर के पद पर लग गई थी। लेकिन मंत्री पद पर रहते हुए जब वह एक बार गांव आए तो हमसे बोले कि नौकरी में कुछ नहीं रखा है खेती करो। उस समय तनख्वाह भी कम मिलती थी। लेकिन बाबू जी उस समय खेती को ही तरजीह देते थे। हमारे पास उस समय 8-10 एकड़ ही जमीन थी जिस पर हमने खेती शुरू कर दी।
गेंदा के नाती अरविंद सिंह बताते हैं कि वह परिवार के लोगों के राजनीति में आने के खिलाफ थे। इसलिए उन्होंने कभी भी परिवार के लोगों को राजनीति में बढ़ावा नहीं दिया। यही वजह है कि परिवार से भी उनके बाद भी कोई राजनीति में नहीं गया। वह याद कर बताते हैं कि मुझे बताया गया था कि गेंदा सिंह ने झोपड़ी में जन्म लिया, गरीबो में पले बढ़े और सिर्फ कक्षा 2 तक पढ़ाई की। लेकिन उन्होंने जिंदगी भर किताबें पढ़ी। जिसकी वजह से उन्हें अपार ज्ञान था। गन्ना के मामले में तो विशेषज्ञ थे। लोग दूर दूर से उनसे सलाह लेने आते थे।
गेंदा सिंह के भतीजे बृजेश सिंह बताते हैं कि उनकी राजनीतिक यात्रा आजादी से पहले ही शुरू हो गयी थी। स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई लड़ते हुए जेल में भी रहे। आजादी के बाद 5 साल तक रामधारी पांडेय के साथ रहे फिर उनका साथ छोड़ सोशलिस्ट पार्टी जॉइन कर ली। उस समय देवरिया में 12 विधानसभा सीट होती थी। 1952 में अपनी सीट जीते और देवरिया की 9 सीट पर जीत भी दिलाई। 1957 में किसी कारण से सोशलिस्ट पार्टी छोड़ प्रजा शोषित पार्टी जॉइन की। 1957 में भी जीते। बाद में उन्होंने जवाहरलाल नेहरू के कहने पर कांग्रेस जॉइन कर ली। उस समय चीन से युद्ध चल रहा था। यह 1964-65 का वक्त था। बाद में उन्हें कृषि मंत्री बना दिया गया। इसके बाद कई पोर्टफोलियो बदले गए। वह पशुपालन, लोक निर्माण विभाग और सूचना मंत्री भी रहे।